कोरोनाः लॉकडाउन के दौर में स्मार्टफ़ोन न होता तो

कोरोनाः लॉकडाउन के दौर में स्मार्टफ़ोन न होता तो....

फ़ोन पर इंटरनेट, सोशल मीडिया और एप्स में भले ही कई बुराई हो और भले ही हम अपने बच्चों को इनसे दूर रखने की कोशिशें कर चुके हों, मगर इस वक्त इनसे न सिर्फ लोगों को बचाने में मदद मिल रही है और अर्थव्यवस्था को भी इनसे ही सहारा मिल रहा है.


स्मार्टफ़ोन और सोशल मीडिया को लेकर हमें अक्सर चेतावनी भरी सलाह मिलती रहती है. लेकिन, आज के इस दौर में जब हम एक महामारी का सामना कर रहे हैं तब तकनीक जीवन बचाने के लिहाज़ से बेहद अहम साबित हो रही है.

ज़रा सोचिए, अगर ये 2005 का दौर होता तो कैसे हालात होते. तब न तेज़ ब्रॉडबैंड था, न स्मार्टफ़ोन और न ही आज के वक्त के टूल्स और एप्स ही थे. उस वक्त अगर हमारा सामना इस महामारी से होता तो शायद हमारी मुश्किलें आसमान छू रही होतीं.

मुझे अभी भी वो वक्त याद है जब अमरीकी राष्ट्रपति केनेडी को गोली मारे जाने की ख़बर फ्लैश हुई थी. मुझे बर्लिन की दीवार के गिरने और 9/11 की घटनाएं भी याद हैं. लेकिन, हमारी रोज़ाना की ज़िंदगी पर जितना बड़ा असर इस कोरोना नाम की महामारी ने डाला है उतना इनमें से किसी घटना नहीं डाला था.


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आज मैं वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए अपने सहयोगियों से बात कर सकता हूं, फेसटाइम के ज़रिए लंदन में एक फ्लैट में फंसे अपने रिश्तेदारों का हालचाल जान सकता हूं और अपने सोशल मीडिया पर भी लिख सकता हूं. लेकिन अगर ये वायरस 2005 में स्मार्टफ़ोन के दौर के शुरू होने से ठीक पहले आया होता तो शायद चीज़ें अगल होतीं.

आज हम अलग-अलग कामों के लिए जितने डिजिटल टूल्स का इस्तेमाल करते हैं तब इनमें से शायद ही कोई उपलब्ध रहा हो.

फ़ेसबुक उस वक्त केवल एक साल पुराना था, लेकिन वह अमरीका के एक कॉलेज से शुरू हुआ था और उस साल केवल यूके की यूनिवर्सिटीज़ में पहुंचा था.

इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था. सोशल मीडिया के बारे में चर्चा तो दूर की बात थी. हालांकि, कई लोग फ्रेंड्स रीयुनाइटेड के ज़रिए अपने पुराने दोस्तों से तब कनेक्ट हो रहे थे जिसे आईटीवी ने 2005 में खरीदा था.

उसी साल यूट्यूब का जन्म हुआ था. इसके अगले साल ट्विटर आया. 2007 में एपल ने अपना पहला आईफोन लॉन्च किया.

15 साल पहले करीब 80 लाख घरों में ब्रॉडबैंड कनेक्शन थे. इनके डेस्कटॉप कंप्यूटर 10 एमबीपीएस (मेगाबाइट पर सेकेंड) की अधिकतम स्पीड से चल सकते थे. इसका मतलब यह है कि एक एलबम को डाउनलोड में करने में करीब डेढ़ मिनट का वक्त लगता था. करीब 70 लाख परिवार उस वक्त डायल-अप कनेक्शंस के जरिए बेहद सुस्त इंटरनेट से जुड़े हुए थे.

इसका मतलब है कि जो सेवाएं आज हमारे लिए बेहद अहम हैं उस वक्त उनकी नींव ही रखी जा रही थी.


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लॉकडाउन से नहीं थमा बिज़नेस
स्काइप की शुरुआत 2003 में एस्टोनियाई आंत्रप्रेन्योर्स ने की. लेकिन, यह केवल एक इंटरनेट टेलीफ़ोनी और कॉन्फ्रेंस-कॉल सर्विस थी. इसमें वीडियो 2006 में जाकर जुड़ा.

अगर आप तब किसी से वीडियो चैट करना चाहते तो उसके लिए बेहद महंगे उपकरणों की जरूरत पड़ती थी. अब फ़ेसटाइम और व्हाट्सएप के जरिए हर कोई अपने परिवार और दोस्तों से बात कर सकता है.

हम ज़ूम और ब्लूजीन्स जैसी सर्विसेज़ की भी खोज कर रहे हैं. अब तक तकरीब एक्सक्लूसिव तौर पर बिज़नेस कस्टमर्स के तौर पर यूज़ किया जाने वाला ज़ूम पिछले हफ्ते एक बार एपल के एप स्टोर चार्ट पर टिकटॉक के बाद दूसरे नंबर पर आ गया था.

आज यूके के 96 फ़ीसदी घरों में ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन की एवरेज डाउनलोड स्पीड 54 एमबीपीएस है. इसी वजह से लाखों लोग आज ऑफिस की जगह अपने घर से काम कर पा रहे हैं.

दो दशक पहले ऑफिस के बाहर भी काम कर सकने का जो अनुमान लगाया गया था वह आख़िरकार अब हकीकत की शक्ल लेने में सफल हो पाया है. लेकिन, ऐसा इलसिए हो सका क्योंकि आज हमारे पास कनेक्टिविटी और कई तरह के ऐसे टूल्स हैं जो हमें बना ऑफिस आए भी काम करने की ताक़त देते हैं.

अपने घर से ही मैं अमरीका में अपने बॉस से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर बात कर सकता हूं या फिर अपने सहयोगियों के साथ स्टोरीज़ पर चर्चा कर सकता हूं.

ये बात सच है कि लॉकडाउन का अर्थव्यवस्था पर बेहद गहरा असर हो रहा है, लेकिन ज़रा सोचिए कि यह और कितना खराब हो सकता था.

ऑनलाइन शॉपिंग के मामले में ओकैडो या टेस्को.कॉम की सेवाएं उस वक्त कुछ सालों तक थीं, लेकिन इनका रिटेल सेल्स में केवल 3 फीसदी हिस्सा था.

आज इनकी सेल्स में करीब 20 फीसदी हिस्सेदारी है और हालिया दिनों में हमने देखा है कि डिलीवरी वैनों के फ्लीट और ड्राइवरों की हमारी जिंदगी में कितनी अहमियत हो गई है.

15 साल पहले ऑनलाइन रिटेलर्स के लिए बढ़ती हुई डिमांड से निपट पाना पिछले हफ्ते उनके सामने आए संकट के मुकाबले कहीं मुश्किल था. इसकी वजह यह है कि आज क्लाउड कंप्यूटिंग ने किसी भी बिज़नेस को आसानी से ऊंचाई पर पहुंचाने की ताकत दे दी है.

लॉकडाउन के बीच पढ़ाई के नए रास्ते
कई देशों में कोरोना के कहर के कारण स्कूलों को बंद किए जाने के बाद लाखों बच्चे घर से पढ़ाई कर रहे हैं, ऐसे में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर भी दबाव बढ़ रहा है.

'एडूटेक' को लेकर 2005 में भी काफी चर्चा थी, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा स्कूलों में आईटी सिस्टम्स को सुधारने तक सीमित था. तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी वक्त आएगा जब बच्चे घरों से ही पढ़ाई करेंगे. उस वक्त न तो बच्चों के पास कंप्यूटर थे और न ही ब्रॉडबैंड कनेक्शन.


जहां तक एंटरटेनमेंट की बात है, फ्लैट स्क्रीन टेलीविज़न ने तब बाज़ार में कदम रखा ही था और और हाई-डेफ़िनिशन टीवी ईजाद हो रहा था. लेकिन ये टीवी इंटरनेट से कनेक्टेड नहीं थे. इसका मतलब है कि कोई स्ट्रीमिंग सर्विस भी नहीं थी. साथ ही पेरेंट्स के ऑनलाइन योग करने की भी गुंजाइश नहीं थी.

जिस तरह से स्मार्टफ़ोन और सोशल मीडिया हमारी जिंदगी पर असर डाल रहा हैं उसे लेकर हाल के सालों में काफी चिंताएं बढ़ी हैं. हमें बताया गया है कि ऑनलाइन दोस्ती से आप ठगी का शिकार हो सकते है, आमने-सामने के संपर्क से बेहतर कोई विकल्प नहीं है, सारा दिन स्क्रीन से चिपके रहना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है.

लेकिन, आज के संकट को देखते हुए कहा जा सकता है कि टेक्नोलॉजी टूल्स के ज़रिए इस संकट से उबरने में मदद मिल सकती है. अगर सही से इस्तेमाल किया जाए तो जीवन बचाने में भी टेक्नोलॉजी बेहद अहम साबित हो सकती है.


Source:- BBC News